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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दे० चौ. बा. བའམ་གཙག་འགལ་འབཀགཀལ་སའ་ལ་བག་འགག་ལ་བསམསལ་བས छता आत्मगुणने स्थिर थवानो तथा नवा प्रगट करवानो हेतु छे. पुण्यानुबंधी पुण्यनो हेतु छे, ए श्री हरिभद्र पूज्ये पंच वस्तुग्रंथमां का छे । गाथा ॥ नाणाइ गुणरुइ खल, तारसीय गुणसंपयं संपत्तो ॥ धन्नो गुणसंपत्तो, पसत्थरागं तिहिं कुणई ॥१॥ गुणरुइ मूलं एयं, तेणं गुणवुड्ढिहेउअं भणियं ।। जह इलाइपुत्तो, पसत्थरागेण गुणपत्तो ॥ २॥ इति वचनात् ॥ इहां कोइ पूछे जे, श्री गौतमस्वामीने त्रिभुवन दयाल, त्रिशलानंदन, श्रीवीर परमात्मा उपर राग हतो, ते केवलज्ञानने रोधक केम थयो ? तेहने उत्तर कहे छे. जे श्रीगौतमनो प्रशस्त राग, क्षयोपशम रत्नत्रयीनो तो दीपक हतो, पण श्रीवीर विद्यमान छतां, रागनी मंदता थइ नहाँ, केमके छते कारणे राग टलवो दुःकर छे, पण जेवारे कारण मटयुं तेथी रागनी अवस्था अटकी, तेवारें श्रेणी थई, तेम प्रशस्त राग सर्व जीवोने क्षयोपशमी रत्न त्रयीनो विरोधी नथी, क्षायकतानी ईहायुक्त, क्षायकताने नजीक करे, परंतु क्षायकरत्नत्रयी थवा दीये नहीं ॥ उक्तं च श्रीसंविज्ञमुख्यैः श्रीजिनेश्वर सूरिपूज्यैः संवेगरंगशालायां ॥ सिके रत्तो तग्गुण, ईहाए लप्भए गुणे सव्वे ॥ तेणं अरिहंताई, सुगुण सुरागं समाहिओ ॥१॥ ते माटे प्रशस्त भावपूजा ते पण साधकतामां छे. हवे शुद्ध भावपूजा ते, जे आत्मानुं सामान्य चक्र, विशेषचक्र, क्षयोपशमी चेतनावीर्य, ते सर्व, श्रीअरिहंत परमात्माना सायकसिद्धत्वादिगुणानुयायी प्रवृत्ते, ते शुभ भावपूजा जाणवी, एटले गुणरागी थईने गुणबहुमानी थ_. पछी स्वस्वरूपमां तन्मयथये थके स्वरूपपूर्णता निपजे, ए मोक्षनो मार्ग छे. हवे प्रशस्त भावपूजानुं स्वरूप कहे छे. श्री अरिहंत वासुपूज्य स्वामी, स्वयं केतां पोताथी बुद्ध थया, एहवा त्रिभु १२८ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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