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दे० चो० बा.
देवचंद्र पद ते लहे जी, विमल आनंद स्वयमेव ॥ वि० ॥७॥ अर्थः---ए रीतें प्रभुजीनी विमलता केतां निर्मलता तेने ओलखीने जे प्राणी थिरमन केतां द्रढमने सेवा भक्ति करे, ते समकिति, देशविरति सर्वविरति जीव, सर्वदेवमां चंद्रमा समान पद परमात्मपद लहे केतां पामे, अनादि संततिसंयोगी भावकर्म उपाधिनो क्षय करीने, निर्मल सिद्ध बुद्ध आत्मतत्वनी पूर्णता ते पामे, इहां स्तुतिकर्तार्नु नाम पण देवचंद्र छे, ते सूचव्यु ए पद कहेवू छे जे मध्ये विमल केतां निर्मल आनंद ते स्वयमेव केतां पोतेज छे, ते पोतानो आनंद पोते भोगवे एहवा अनंत धर्म प्राग्भाव रूप श्रीविमलनाथनी सेवना करो, मोक्षार्थी जीवने श्रीअरिहंत सेवना तेहिज मोडं कारण छे, अनादिनी प्रांति टालवानुं पुष्टनिमित्त छे, ॥ ७ ॥ इति त्रयोदशम श्री विमल जिन स्तवनं संपूर्ण । ॥अथ चतुर्दश श्री अनंत जिन स्तवनं ॥
॥ दीठी हो प्रभु दीठी जग गुरु तुज ॥ ए देशी ॥ मूरति हो प्रभु मूरति अनंत जिणंद, ताहरी हो प्रभु ताहरी मुझ नयणे वसी जी ॥ समता हो प्रभु समता रसनो कंद, सहेजें हो प्रभु सहेजें अनुभव रस लसी जो ॥१॥
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