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त्रयोदश श्री विमलजिन स्तवनं.
भुना दीहवो स्वभाव निर्मल थाय, माटे हे प्रभो! ए कोइ अद्भुततान केतां तत छे जे अरिहंत प्रभुनुं शुद्धस्वरूप चिंतवतां ध्यान करतां, पोतानुं स्वरूप नीपजे, एहिज आश्चर्य छे॥५॥ इति पंचम गाथार्थः ॥
तुम प्रभु तुम तारक विभूजी, तुम समो अवर न कोय ॥ तुम दरिसणथकी हु तोजी, शुद्ध आलंबन होय ॥ वि ॥ ६ ॥
अर्थः-माटे हे श्रीविमलनाथ ! माहरा प्रभु अधिपति तुमेज छो, वली मुजने संसारमांथी तारखा वाला परमनिर्यामक परमसामर्थवंत तुमे छो, हे देव ! हे कृपासिवु ! हे ज्ञानभानु तुम समान माहरे बीजो कोइ नथी त्रिभुवन मांहे तमेज दयाळ छो, हे जगत्वत्सल !! ताहरो दर्शन केतां देखवू अथवा दर्शन ते समकित तेने पामे थके हुं तो, संसार समुद्रने ओलंगी पार थयो, ईहां कारण पामे थके भक्तिना हरषे उपचार वचन कडं, एम शुद्ध निर्मल स्वरूपनो आलंबी थयो थको हे नाथ ! ताहरा स्वरूपने अवलंबे, में माहारु स्वरूप ओलख्युं, ते ओलख्यायी स्वरूप रुचिउपनी, पछी स्वरूपविश्रामी अनुभवध्यानी थये तर्यो ए भावी कार्यनो वर्तमानारोप नैगमनयर्नु वचन छे ॥ ६ ॥ इति षष्ठ गाथार्थः ॥
प्रभुतणी विमलता ओलखी जी, जे करे थिरमन सेव ॥
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