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चतुर्दश श्री अनंतजिन स्तवनं.
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__ अर्थः-हवे चौदमा प्रभु श्री अनंतनाथजीनी स्तवना करे छे, हे अनंतनाथजिणंद ताहरी केतां तुमारी मूरति केतां मुद्रा एटले आकार ते माहारा नयणे केतां नेत्रने विषे वसी छे ! ते मुद्रा कहेवी छे तो के समता जे राग द्वेष रहितपणु ते रूप जे रस तेनो कंद छे. वली सहजे प्रयास विना अनुभव स्वभोगीपणुं ज्ञान तेहना रसथी लीन छे तन्मय छे ॥ १ ॥ भवदव हो प्रभु भवदव तापित जीव, तेहने हो प्रभु तेहने अमृतघन समी जी। मिथ्याविष हो प्रभु मिथ्या विषनीखीव, हरवा हो प्रभु हरवा जांगुली मनरमी जी ॥२॥
अर्थः--वली भवजे चारगतिरूप संसार, ते रूप दव केतां दावानलना तापे करीने बली रहेला आकुलित जीवोने परम शीतलता करवाने ताहारी मूरति ते अमृतना मेह समान छे, एटले संसारनो ताप तमार। दर्शनथी मटे छे, माटे. वली मिथ्यात्वरूपविष तेहनी खीव केतां धूमि-मूर्छा वेहने हरवाने जांगुली केतां गारुडीना मंत्र समान ताहरी मूर्ति छे ॥२॥ इति० ॥ भाव हो प्रभु भावचिंतामणि एह, आतम हो प्रभु आतम संपत्ति आपवा जी ॥ एहिज हो प्रभु एहिज शिवसुख गेह, तत्त्व हो प्रभु तत्वालंबन थाषवा जी ॥३॥
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