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श्रीमद् देवचंद्रजीना लखेला पत्र.
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पर्यायनो अनंतभोग प्रगटे, तिवार इहां कोइ कहेस्ये जे तेरमा गुणस्थानकवर्ती जीवने भोगांतरायने क्षय थावे करी अनंतो स्वगुणपर्यायनो भोग प्रगट्यो छे, अने आहारादि पुद्गलनो भोग ते जीव किम करे छे, ते युक्ति खरी कही पिण इम छे जे तेरमा गुणस्थानकवर्ती जीव पूर्वे आहार पर्याप्ति बांधतां जेतलां पुद्गलनो ग्रहणपणो बांब्यो छे, तेतला पुद्गल ग्रहे, तिवारे ते आहार पर्याप्ति पुद्गलरूप जे आत्मप्रदेशे संबद्ध छे, ते निजरे तेतलो निरावरण थाय, ते माटे केवली जे आहारादिक पुगलनो ग्रहण भोग करे छे तेम ते निर्जरा; पिण वांछा भोगपणे नथी. तथा सम्यग्दृष्टिनो भोग ते प्रशस्त परिणामनी प्रवर्तनाए करी निर्जरानो हेतु थाय छे, तो केवळीनं शुं कहिवो. ते माटें स्वगुणपर्यायने भोगववारूप जे भोग गुण ते तो भोगांतरायना क्षयथी प्रगटे, अने भोगांतरायनो क्षयापशम तो सर्व जीवने सदा पामीये, तिहां भोग गुणनो स्वभाव ए के जे भोगववो अने स्वगुण पर्यायनो भोग अनंतकाल थयां भूली गयो छ, तिवारे पुद्गलानंदी थये छते आत्मा पुद्गलनो भोग भोगवे छे, ते इहां भव्य जीवे स्वआत्मिक अनंतोभोग गुरु मुखे सांभली, जाणी, श्रद्धा करी ते भोग अनादिनो अवराणो जाणी, ते जीव निरावरण करवाने उद्यमी थाय ते इहां शुद्ध निमित्तनी अवलंबनाए शुद्ध उद्यमे आत्मा प्रवर्ती शके अने शुद्ध उद्यमे तथा शुद्ध निमित्तनी अवलंबनाने विषे थिर परिणाम तो रहें, जो आत्मा पुद्गलभावथी विरमणपणे करे ते जे पुद्गलथी विरमद् ते संवर कहीये, एहवा भाव संवरने विषे रह्यो छतो स्वगुणपर्यायनो अनुभव प्रवर्तना करे ते शुद्ध ज्ञान कही ये. अने ते ज्ञान तो प्रवर्ते जो वीर्यनो सहकार होय ते
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