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वीरजिनवरनिर्वाण.
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प्रभु देशना अतिसुखकार भाख्या निश्चय विवहार, कारण कारज विधि भाखी शिव साधन शिक्षा दाखी ॥२॥ सर्व जीव अछे सम एव, संग्रह सत्ताने लेश; जे पर परमाते त्यागी, तसु कर्मनी भावठ भागी ॥३॥ जसु तत्वज्ञचि थयो जान ते साध्ये साध्य अमान, निज व्यक्ति शक्ति निज रंगी साधे गुण शक्ति अनंगी ॥४॥ शुचि श्रद्धाभासन रमणे कारक निज कार्यने गमणे, भागे परपरणति रित एकत्वे तत्त्व प्रतित ॥५॥ परभाव अरोचक दृष्टि निज ज्ञानसुधानि वृष्टि, परभोगी भाव अभावे करतादि थया निज भावे ॥६॥ जाणि निज परणति स्वामी, कुंण थाई परपरणामी ए भावे निज गुण पोषे, ते शुद्ध समाधि संतोषे ॥७॥ दुःख पोषक पर परसंग, न भजेहेत धरि रंग; निज तत्त्व रमो भविप्राणी, देवचंद वदे इंम वाणि ॥८॥ ॥ ढाल ॥ बहिनी रही न सकि तिसेंजी ॥ ए देशी ॥
सुरनरतिरिय समूहमेंजी बेठा श्रीवर्द्धमान; जगत दया उपदिसेजी, शुद्ध धर्म सुख ध्यान ॥१॥ जिणेशर तुम मुज प्राणाधार ॥ टेक ।। भवभय पीडित जीवनेंजी, त्राणशरण सुखकार; सोल पहोरनी देशनाजी, वीर कही तिणवार क्षीराश्रववचने कह्याजी, प्रश्न छत्रीस उदार जिने ॥२॥ पंचावन अध्ययनमांजी, सुखविपाक स्वरूप वली तेता अध्ययनमांजी, दुःखविपाक विरूप जिने ॥३॥
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