________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पंचदश श्री धर्मनाथजिन स्तवनं.
६९५
तेथी एने निवारी यें, तो जाये तेवारे ए माहरो आत्मा स्वरूपावस्थित थाय, एम विचारी तेहनो उपाय चिंतवे छे. जे ए संसारी आत्मा परानुगत थइ रह्यो छे, तेहने जो हमणां स्वरूपथी जोडीएं, तो टकी शके नही, अने परविजातियी जोड्यो थको बंधने वधारे छे, माटे परस्वजाति जीव जे अमोही, शुद्धज्ञानी तेथी जोडीयें, तो स्वजाति स्वरूप रंगी थाय. पछी अरिहंतनुं स्वरूप तथा आपणा आत्मानुं स्वरूप तुल्य छे, तेथी तेहना स्वरूपें रसिक थाय, तो पछी कर्मे आवर्यों पण, आत्मस्वरूपनी रुचि उपजे, ते रुचिथी पोताना स्वरूपने सर्दहे, जाणे, रमे, उद्यम करे, परभाव तजे ए अनुक्रमथी संपूर्ण स्वरूप पामे, तेमाटे परमात्मा प्रभु श्रीधर्मनाथजीना भक्तिनो रंगी थइने शुद्ध कारणने रसे आत्मा तत्त्वपरिणतिमां मग्न थाय, पोता, आत्मस्वरूप जोवे, ध्यावे, संभारे तथा तेहनेज प्रगट करवाना यत्न करे, एवी रीते जेवारे आत्मानो ग्राहक थाय, तेवार अनादिनी परग्राहकता तजे, केम जे आत्मस्वरूपनो ग्राहक थयो, ते परभावने ग्रहे नहीं, जेटली आत्मपरिणति आत्मधर्मे ग्राहक थइ ते कर्मादिक न ले तेने संवरपरिणति कहियें, वलीतत्त्वभोगी थये, परभोगीपणुं टले, तेवारें आत्माने भोगवे ॥८॥ शुद्ध निःप्रयास निजभाव भोगी यदा, आत्मक्षेत्रे नही अन्य रक्षण तदा । एक असहाय निस्संग निद्वता, शक्ति उत्सर्गनी होय सहु व्यक्तता ॥ ९॥ 88
For Private And Personal Use Only