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दे० चो० बा०
तहवी सत्तागुणे जीव ए निर्मलो, अन्यसंश्लेष जिम फिटक नवि सामलो॥ जे परोपाधिथी दुष्टपरिणति ग्रहो, भाव तादात्म्यमां माहरूं ते नही ॥ ७ ॥
अर्थः--तोपण सत्तागुणे द्रव्यास्तिक संग्रह नये ए माहरो जीव निर्मल छे, निष्कलंक छे, असंगी छे, अरूपी छे, कोण दृष्टांते ? जेम श्यामादिक पुटसंयोगे फटिक रत्ननो दल श्याम दीठामां आवे छे परंतु फटिक कांइ श्याम थयो नथी, पण अपरीक्षक लोक तेने श्याम जाणे छे, पण जाते जेहवो हतो तेहवोज छे, तेम कर्मसंगे आत्मा अशुद्धरूप देखाय छे, परंतु तत्त्वज्ञानी एने जाते निर्मलज जाणे छे, तेम श्रद्धावंत पण निर्मल जाणे छे अने जे परउपाधियी दुष्टपरिणति कर्मकर्ता पणारूप ग्रहीने तादात्म्यभावमां तादात्म्यसंबंधे करी छे, ते सर्व उपाधिकभाव माहरो नथी, संयोगे संबंध मल्यो छे, परंतु समवायसंबंधे नथी जे विभाव ते तदुत्पत्तिसंबंध छे परंतु तादात्म्यसंबंधे नथी, एम भावq ॥ इति सप्तम गाथार्थः ॥ ७ ॥ तिणे परमात्मप्रभु भक्ति रंगी थइ, शुद्धकारण रसे तत्व परिणति मयो ॥ आत्मग्राहकथये तजे पर ग्रह्णता, तत्त्वभोगी थये टले परभोग्यता ॥ ८ ॥ अर्थः--माटे ए विभावपरिणति ते माहरो मूलधर्म नथी,
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