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अध्यात्मगीता.
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अर्थः-- नय के० नैगमादि सातनयनामादि च्यार निक्षेपे अने प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणे करी जीव, अजीवादि नक्तत्व षटूद्रव्यनो स्वरूप जाणे, स्वपर के० स्वजीव चेतनावत ज्ञानादिक गुण पर जे अजीव पुद्गलवंत सडण पडण विध्वंसण धर्म एवी
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ते स्वपरनी वेंचण करतां थकां सदा स्वरूपनो लाभ हुवे, निश्चय के० निश्चय नयते आत्म स्वरूपने विषे दृष्टि राखी ओळखीने व्यवहार शुद्ध विचरे, शुद्ध क्रिया आचरणाई प्रवर्त्ते जे मुनिराज ते मुनिराज निश्चय नय व्यवहार नयनो उपदेश दे, निश्चय धर्म निर्जरा हेतु छे, बाह्य व्यवहार धर्म 'पुण्यबंधनो हेतु छे. एहवा उपदेश दइने भव समुद्री तारवाने जिहाज समान जाणवा. निर्भयपणे भयरहित जिम जिहाज आलंबी समुद्रने तरे, तिम आत्मज्ञानी मुनिराज ने आलंबी भव्य प्राणी संसारनो पार पामे ॥ ४६ ॥
वस्तु तत्त्वे रम्या ते निग्रंथ ।
तत्त्व अभ्यास तिहां साधु पंथ ॥ तिणे गीतार्थ चरणे रहिजे । शुद्ध सिद्धांत रस तो लहिजे ॥ ४७ ॥
अर्थ - - वस्तुधर्म के० आत्मधर्मने विषे रम्यांते निग्रंथ, तव के० आत्मतत्त्वना अभ्यासने विषे सदाकाळ निरंतरपणे जेहनो उपयोग वर्त्ते तिहां साधुपंथने साधुनो मार्ग कहीए, मोक्ष मार्गनो साधनारो ते साधु कहीए. द्रव्य चारित्र ते, हिंसादिक पांच आश्रवनो त्याग, पांच महाव्रत चरण सित्तरि करण सित्तरि पाळे, बेतालीस दोष रहित आहार ले, सर्व सिद्धांत
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