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दे. चोक बार
कार्यकारणपणे प्रणमे तहवो ध्रुव, कार्यभेदें करे पण अभेदी॥ कर्तृता परिणमे नव्यता नवि रमे, सकल वेत्ता थको पण अवेदी ॥३॥
अर्थः--वली उत्पादव्यरूप धर्म कहे छे. जीवद्रव्यने विषे जेटला गुण छे, ते सर्व पोतानुं कार्य करे छे, अने उपादानरूप कारण तेहीज कार्य थाय छे. इहां कोई कहेशे जे पूर्वकाले कारण, पश्चात्काले कार्य, एतो जमालीनो मत छे, जो कारणकाल, कार्यकाल भिन्न होय, तो कारणकाल विनाशे तदनंतर कार्यकाले कारण विना कार्योत्पत्ति थाय, अने कारण विना कार्म मानतां अनेक दोष थाय, तेवारें घटें पट कार्य थाय, पटें घटकार्य थाय, माटे कारण विना कार्य नथी, एटले कारणभाव, तथा कार्यभाव, ए बे एक सममें छे, ए जैननी श्रद्धा छे, श्रीविशेषावश्यकमध्ये घणुं वखाण्युं छे, जो बाह्य उत्पन्न कारण कार्यविषे एक कालता छे, तो सहज अकृत्रिम कारण कार्यता एकसमयेंज होय, तेमाटे जीवनो केवलज्ञानगुण, ते विशेषभाव सर्व जाणे छे, तिहां सर्वनुं जाणवू, ते कार्य छे, अने ज्ञानगुण, जाणवा रीतें प्रवत्र्ते, ते कारण छे, तेहज समये कारण कार्यपणे परिणमे छे. अने ज्ञानगुण पणे सदा ध्रुव छे, तेम केवल दर्शनादि गुण अनंता छे, ते सर्व ए रीतें परिणमे छे, कारणता व्यय, तिहांज कार्यता उत्पाद, कार्यताव्यय, तिहांज कारणता उत्पाद, इम सर्व द्रव्यने विषे, उत्पादव्यय धर्म छे. इहां कोइ कहे छे जे उत्पादव्यय स्वतः
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