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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीमद् देवचंद्रजीना लखेला पत्र. १०७९ mmmmm ~~~ ~urrr rrror ते सिझमानथी तेतलो मे [द] छै. दशमा गुणठाणाना मुनिने श्री भगवतीसूत्र उस्सत्तं रियति इम कह्यो छे, तो जे स्वरूपरुचि विना सातादि गारव माटें संयम श्रुताभ्यासने संसार हेतु छे, ए आचारांगे धूताध्ययने चोथे उद्देशे कह्यो छे, ते माटें पूरण सिद्धावस्थायें जे छतो पामीये ते धर्म जाणवो. तेहनी रुचि जे आगम प्रमाणे पोताना प्राग्भावी गुण तथा उदीक गुणी अनुयायी करवो ए साधकता छे, ते करतां संपूर्ण धर्म प्रगटें तेहनो उद्यम करखो ए सर्व जीवने हित छे, ए आत्मसत्ता प्रगट करवा माटें परमेश्वर परमपुरुष परमानंदमयी संपूर्ण आत्मसत्ताऽभोगी सहज आत्यंतिक एकांतिक ज्ञानानंदभोगी परस्मानो बहुमान ध्यान करवो. आत्मिक शक्ति कर्ता भोक्तादिक कारक चक्र ते विभावरूप कार्य कर्त्तापणे अशुद्ध संसार क"पणे करतां अनंत पुद्गल-परावर्त वही गयां, ते क्षयोपशमी चेतनादिक इद्ध निरंजन निरामय निद्व निष्पन्न परमात्मगुणानुयायीक, ते स्वरूप प्रगट करवाना कारण थया, ते पछी स्वरूपावलंबी शया एतलें परम सिद्धताना कारण थायें, ते माटे प्रथम प्रशस्तालंबी थई स्वरूपालंबीपणे परणमी स्वरूप निष्पत्ति करवी ए हित जाणवोजी। तथा द्रव्य साधन ते भावसाधन नो कारण, भावसाधन ते संपूर्ण सिद्धनो हेतु छे, ते रीतें श्रद्धा राखवीजी. पौद्गलिक भावनो त्याग ते आत्माने स्वस्वरूप प्रगद करवाने कखो ए निमित्तकारण साधन छे, अने आत्मचेतना आत्मस्वरूपालंबीपणे वरते ते उपादान साधन छे, ते उपादान शक्ति प्रगट थवा माटे सिद्ध बुद्ध अविरुफ निष्पन्न निर्मल अज सहज अविनाशी अप्रयासी ज्ञानानंद पूर्ण क्षायिक सहज पारिणामिक रत्नत्रयीनो पात्र जे . For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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