SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्रव्यप्रकाश. उतपात व्यय ध्रुव धारा तीनौ सदा एक समे एक वस्तु वीचि कही सत्य हे. ॥ ३७॥ ॥ न्यायमति ॥ ॥ सवैया इकतीसा ॥ ऐसे वानी सुनी मनमांही न सुहानी तब न्यायमति बोल्यो निज पक्षको पकरीके, नारी विनुं होय कैसे संतानके उपज न भोजनको करे कौउ पाक विनुं करेके उद्यमके कीये वितुं कैसे कार्यसिद्धी होत उद्यम प्रधान याते कहो और हरिके, याते करतार जीव कह्यो विश्वनाथ ऐसे वीरजको फोरि निज उद्यमको धरिके ॥ ३८ ॥ ॥ताको जैन उत्तर कथन ॥ ॥ सवैया इकतीसा ॥ जैन कहे एतो बात कही हे एकंतनय स्यादवाद बादी ऐसी वात नाही कहे हे, चेतनको वीरज जागे भागे परभाव सब याते यह उद्यम व्यौहारमाही गहेहे; कर्म उदै उद्यम सो गुन त्रय वहेहे, कर्मको स्वामित्वपनो भेदज्ञान भाव विनुं अहं बुद्धि भाव वसि चेतनजी लहेहे ।। ३९ ।। ॥ शिवमनि कथन ॥ ॥ सवैया इकतीसा ।। शिवमति कालवादि कालपक्ष गहे रहे, कहे सब जगवात कालमत पीन हे, कालवसि बालक सो युवा होय वृद्ध होय कालपाय वस्तु जो नवीन सोइ छीनहे: कालबसि रितु फिरे For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy