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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दे० चौ. बा. जेम वर्षादथी चार दिशिना मार्ग बंध थाय, तेम इहां जिनभक्तिना योगें चार गतिनो मार्ग बंध थाय एटले साचा मनयी जे प्रभुसेवन करे, ते चार गतिना भ्रमणने टाले. वर्षाकाले सर्वलोक पोतानें घरे रहे. तेम इहां पण अनादिनो उद्धत परभावामिलाषी आत्मा ते अनेक विषय विकाररूप भावमा रहेतो हतो, तेने श्रीनिःकर्मदेवने निमित्तें स्वरूपनी प्राप्ति थइ, चेतनसमताने संगे रंगे केतां रीझ करीने ऊमह्यो थको समतामां रमी रहे, स्वात्म स्वभावमां अनुभव रंगे रमी रहे ॥ ३ ॥ इति तृतीय गाथार्थः ।। सम्यग्दृष्टि मोर, तिहां हरखे घणुं रे ॥ति०॥ देखी अद्भुत रूप, परम जिनवर तणुं रे ॥प०॥ प्रभुगुणनो उपदेश, ते जलधारा वही रे ॥ते॥ धर्मरुचि चित्त भूमि, माहे निश्चल रही रे ॥मां०४॥ अर्थ:--जिनभक्तिरूप मेह देखीने सम्यग्दृष्टि तत्त्वरुचिरूप मोर तेहने अत्यंत हर्ष आनंद उपजे, श्रीतीर्थकर देवन रूप केहबुं छे ? जो अत्यंत परमोत्कृष्टरूप सर्व देवता मलीने विकुर्वे, तोपण श्रीअरिहंतना पगना अंगुठा समान रूप करी शके नहीं, एहवू परमशीतल निर्विकारी परमेश्वरचं रूप देखीने सम्यक्दृष्टि जीव वर्षाकालना मोरनी परें हर्ष आनंद पामे. प्रभु श्रीतीर्थकर देव, तेनी भक्तिमा परिणम्या, एवा तत्त्वरुचि जीव, ते पोताना वचनें उच्चार करीने प्रभुना गुणग्राम करे, ते प्रभुगुणगानरूप मेघनी जलधारा, वहीने ते २१४ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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