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साधुनी पंच भावना.
बांधे करम जीव एकलोरे, भोगवे पण ते एक। किण ऊपर किण वातनी रे,
राग द्वेषनी टेक रे ॥प्राणी० ॥ ५॥
अर्थः-जीव एकलो पोते पोताना अशुद्ध परिणामे कर्म बांधे छे अने ते उदय आव्ये पोते एकलोज भोगवे छे. तो अन्य कोना उपर अने कई वातनी राग द्वेषनी देव राखवी ॥५॥
जो निज एकपणुं ग्रहेरे, छोडी सकल परभाव। शुद्धातम ज्ञानादिशुं रे एक स्वरूपे भाव रे ॥ प्राणी ॥६॥
अर्थः-जो आत्मा अनंत लक्षणवालो एक ज्ञायक पिंड पोते छं, ए शिवाय अन्य ते हुं नथी, ज्ञायकता शिवाय अन्य मने नथी, पुद्गलादि अन्य पदार्थो माहरा वडे के में कर्या नथी, अन्य पदार्थ कोइ पण माहरा माटे नथी, माहराथी के मुज आश्रित नयी, तेम माहरा के माहरामां नथी एम जाणी सर्व विभाव छोडी हुँ एकज नित्य अबाधित शुद्ध गुण पर्यायनो एक पिंड छ एम एकप ग्रहे तो अन्य द्रव्य गुण पर्यायना शुभाशुभ संकल्पो विकल्पो विलय जाय अने निर्विकल्प समाधि पामे, ए माटे आत्माना शुद्ध ज्ञानादि स्वरूप, एक अभेदपणुं भाव ॥६॥
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