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श्री सहस्रकूट जिनप्रतिमा स्तवन.
तीर्थ सकल वळी तीर्थंकर सहु, एणे पूजा ते पूजाय विवेकी; एक जीह (जीव्हा) यी महिमा एहनो, किणभातें कहेवाय. वि० १० ॥ श्रीमाळी कुळदीपक जेतसी, शेठ सुगुणभंडार विवेकी; तस सुत शेठ शिरोमणि तेजसी, पाटण नगर में दातार. वि० ११॥ तेणें ए वित्र भराव्या भावशुं सहस अधिका चोवीस विवेकी; कीधी प्रतीष्ठा पुनमगच्छचक, भावप्रभसरीस. वि० १२ ॥ सहस जिनेसर विधीशुं पूजसे, द्रव्यभाव शुचि होय विवेकी; ए भव परभव परम सुखी होवे, लहस्यें नवनिधि सोय. वि० १३ ॥ जिनवर भक्ति करें मनरंगरी, भविजननी ए छे रीत विवेकी; दीपचंद्र सम श्री जिनराजजी, देवचंद्रनी ए प्रीत वि० ॥ १४॥
इति सहस्रकूट स्तवन समाप्त ॥
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॥ पद ॥ राग होरी ॥ अजितनाथ चरण तोरे || आयो अ० ॥
तुं मनमोहन नाथ हमारो, त्रिभुवनजनकुं सुख प्यारो ॥ अरी अरी लाला त्रि० ॥ तृष्णा ताप निवारण वारो, बावना चंदनसें अति प्यारो ॥ अ० ॥ १ ॥ माहा माहांग रक्तंग करीरो, तस भेदनकुं वज्र अटारो || अ० ॥ प्रांगधरा पुरमां मनोहारो, प्रासाद बन्यो अतिसारो || अ० ||२|| समता रस वरषित घन धारो, समकित बीज ऊपावत क्यारो ॥ अ० देवचंद्र गुणि गुण संभारो, एही अशरण शरणता ऊदारो ॥ अ० ॥ ३ ॥
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