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८३० श्री महो० देव० कृत अतित जिन चोविशी.
ज्ञेय सकल जाणग तुमे,
प्रभुजी ज्ञान दिणंद नाथरे ॥ नमि० ॥ १ ॥ वर्त्तमान ए जीवनी, परिणति केम नाथरे ॥
जाणं हे विभावने,
पिण नवि छूटे प्रेम नाथरे ॥ नमि० ॥ २ ॥ पर परिणति रस रंगता,
पर ग्राहकता भाव नाथरे ॥
पर करता परभोगता,
यो थयो एह स्वभाव नाथरे ॥ नमि०॥३॥
विषय कषाय अशुद्धता,
न घटे ए निरधार नाथरे ॥
तो पण वर्छु तेहने,
किम, तरिये संसार नाथरे ॥ नमि०॥ ४ ॥ मिथ्या अविरति प्रमुखने,
नियमा जाणुं दोष नाथरे ॥
नंदू रहूं वली वली,
पण ते पामे संतोष नाथरे ॥ नमि०॥५॥
अंतरंग पर रमणता,
टूलये किये उपाय नाथरे ॥
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