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सप्तदशम श्री अनीलजिन स्तवन.
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निप्रयास गुण वर्त्ततारे, नित्य सकल उपयोग ॥ अनोल ॥३॥ सेव भक्ति भोगी नहीं रे, न करे परनो सहाय ॥ तुज गुण रंगी भक्तनार, सहजे कारज थाय ॥ अनील०॥४॥ किरिया कारण कार्यतारे, एक सयय स्वाधीन ॥ वर्ने प्रति गुण सर्वदारे, तसु अनुभव लयलीन ॥ अनोल०॥५॥ ज्ञायक लोकालोकनारे, अनील प्रभु जिनराय॥ नित्यानंद मयी सदारे,
देवचंद्र सुखदाय ॥ अनील० ॥६॥ ॥अथ अष्टादशमा श्री यशोधर जिनराजनुं स्तवन।
॥ राग मारू ॥ए देशी॥ वदन पर वारिहो जशोधर वदन पर वारिहो ॥ मोह रहित मोहन जयाको उपशम रस क्यारिहो। अहो उपशम रस क्यारिहो ॥ १०॥१॥
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