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४४ श्री महो देव० कृत अतित जिन चोविशम.
मोही जीव लोहको कंचन, करवे पारस भारि हो । समकित सुरतरु उपवन सिंचन, वर पुष्कर जलधारि हो ॥ अहो०॥ व.॥२॥ सर्व प्रदेश प्रगट सम गुणथी, प्रवृत्ति अनंत अपहारी हो । परम गुणी सेवनथें सेवक, अप्रशस्तता वारी हो ॥ अहो०॥ व० ॥३॥ पर परिणति रुचि रमण ग्रहणता, दोष अनादि निवारी हो ॥ देवचंद्र प्रभु सेवन ध्याने, आतम शक्ति समारी हो ॥ अहो० ॥ व०॥४॥
॥ अथ एकोनविंशतितम कृतार्थ जिन स्तवन ॥
॥ अधिका ताहरो हुं अपराधि ॥ ए देशी ॥ सेवा सारज्यो जिनजी मन साचे, पण मत मागो भाई ॥ महेनतनो फल मागी लेतां, दास भाव सवि जाई ॥ से० ॥१॥
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