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अष्टादश श्री अरनाथजिन स्तवनं.
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केतां संसार तेहमांयी द्रव्ये तथा भावे निस्तारना करणहार छे ।। इति प्रथम गाथार्थः ॥ कर्ता कारण योग, कारज सिद्धिलहे री ॥ कारण चार अनूप, कार्यार्थी तेह ग्रहे री ॥२॥
अर्थ-हवे मोक्षकार्य निपजाववा माटे कारण कार्यनी नीति कहे छे. सर्व कार्य छे, ते कंन्ना कीधा थाय छे, तेमां मिन्नकार्यनो कर्ता पण भिन्न, जेम घटनो कर्ता कुंभकार मिन्न छे, अने अमिन्नकार्यनो कर्त्ता पण अभिन्न छे, जेम ज्ञाननो को आत्मा छे, तेम संपूर्ण सिद्धत्वनो कर्त्ता पण आत्माज छे, ते कर्ता जेवारें कारणनी योगवायी पामे, तेवारें कार्यनी सिद्धि नीपजाववापणुं लहे, एटले एकलो कर्ता ते. कारण सामग्री विना कार्य करी शके नहीं, कारण सामग्री मलेज, कार्य नीपजावे ते कारणना चार भेद छे, जे कार्य नीपजाववानो अर्थी थाय, ते चार कारणने ग्रहे. इहां घणा शास्त्रोमां तो कारणना बे भेद कह्या छे, एक उपादान कारण, बीजो निमित्त कारण, अने विशेषावश्यकने विषे समवायिकारण, असमवायिकारण ए नाम कह्यां छे, तथा आप्तमीमांसामां कारण त्रण कह्यां छे, " समवाय्यसमवायि निमित्तभेदात् " तेमां समवायि कारण ते उपादान कारण अने असमवायि कारण ते नामांतर असाधारण कारण कहेवाय छे, तथा निमित्त कारणना बे भेद करी यें तेमां एक तो निमित्त कारण बीजं अपेक्षा कारण ते तत्त्वार्थ टीकामां वखाण्युं छे, तथा अपेक्षाकारणं पूर्वमित्यनेन उच्यते यथा घटस्योत्पत्तावपेक्षाकारणं व्योमादि उपेक्षते इति उपेक्षा " तेमाटे
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