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श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विहरमानजिन स्तवनं. ७९५
॥ अथ नवम श्रीसूरप्रभजिन स्तवनम् ॥
|| देशी कडखानी ॥ सूर जगदीशनी तीक्ष्ण अति शूरता, तेणें चिरकालनो मोह जीत्यो || भाव स्याद्वादता शुद्ध परकाश करि, नीपनो परम पद जग वदीतो ॥ १ ॥ सू० ॥ प्रथममिथ्यास्त्र हृणि शुद्ध दंसण निपुण, प्रगढ़ करि जेणें अविरति पणासी ॥ शुद्ध चारित्र गत वीर्य एकत्वयी, परिणति कलुषता सवि विणाशी || २ || ० || वारि परभावनी कर्त्तृता मूलयी, आत्मपरिणाम कर्तृत्व धारी ॥ श्रेणि आरोहतां वेद हास्यादिनी, संगमी चेतना प्रभु निवारी || ३ || सू० ॥ भेदज्ञानें यथा वस्तुता ओलखी, द्रव्य पर्याय में थइ अभेदी ॥ भाव सविकल्पता छेदि केवल सकल, ज्ञान अनंतता स्वामि वेदी || ४ || सू० ॥ वीर्यक्षायिक बलें चपलता योगनी, रोधि चेतन कयों शुचि अलेशी ॥ भाव शैलेशी में परम अक्रिय थइ, क्षय करी चार तनु कर्मशेषी ॥ ५ ॥ सू० ॥ वर्ण रस गंध विनु फरस संस्थान वितु, योगतनुं संग विनु जिन अरूपी ॥ परम आनंद अत्यंत सुख अनुभवी, तत्त्वत
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न्मय सदा चित्स्वरूपी ॥ ६ ॥ ० ॥ ताहरी शूरता धीरता तीक्ष्णता देखि सेवकतणो चित्त राज्यो | राग सुप्रशस्तथी गुणी आश्चर्यता, गुणी अद्भुतपणे जीव माच्यो ॥ ७ ॥ ० ॥ आत्मगुण रुचि थये तच्च साधन रसी, तच्च निष्पत्ति निर्वाण थावे ॥ देवचंद शुद्ध परमात्म सेवनथकी, परम आत्मिक आनंद पावे ॥ ८ ॥ सूत्र ॥ इति नयम सुरप्रभजिन स्तवनम् ॥ ९ ॥
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