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द्रव्यप्रकाश.
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सदा अमलान है, खंध निरधुंध निरबंध कर्म हीन पीन छीनमसकीनभाव भावसो अदीन है; चितमे चेतन खान दरसन भासमान अनुभव ज्ञान जान अनगुन हीन है, अक्षर त्रिगुण इंद देवचंद महानंद परम अमृत संतपद लय लीनहे. ॥१४६॥ ॥ कुंडलीयो ||
ऐसो चेतन ब्रह्मवर, समता नारि वियोग, चित्त थिरता न लहे कहूं, पावहि बहुविधि सोग, पावहि बहुविधि सोग जन्म मरण निखेद, अति भव भवभ्रमण भमंत, जह रज्जु विरह चित्त, क्षणभंगुर गुन हीन ग्रह्यो आत्म करण तन, निज प्रिय विनु बहु भर्म ब्रह्मवर एसो चेतन ॥ १४७ ॥
|| आत्म समता वियोग ॥ || सर्वेया वीसा ||
मित्त विहीनमें दीन भयो अति मोचीत सौथिरता न लहे है, यह जगमे दीन राति निरंतर अंतरते थिरता न गहे है; आतम मीतके सुख वियोग दुख परयो सुखकु ज चहे हैं, सो सुख तो निज ज्ञानके आगम जो कबहु परकुं न वहे है . १४८
॥ पुनः आत्माके विशुद्धगुन कथन ॥ || सवैया तेवीसा ||
आथिरता थिरता समतालही औरके ठोरतो नाहि रुलेगे, चित्त प्रवृतिको अति निवृत्तमे या गुन ज्ञानमे ठीक धूलेगे; ज्यां लगे चेतनता भुजमे थिरता लगिया गुन त्रय न मुलेगे, देवकहे निजदेवकी सेव सो या भवदेवको दूर ठिलेगे. ।। १४९ ॥
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