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द्रव्यप्रकाश.
॥ आत्मबुद्धि उपादेय कथन ॥ ॥ दोहा ॥
आत्मबुद्धि शिवको करे, देहबुद्धि संसार,
ता ते तनधी त्यागकें, करि निजगुनसो प्यार. ॥ ८२ ॥ पुण्य पाप दोनुं प्रकृति, है पुगलको खंधः इनपर आतमबुद्धि जौ, इह करमको बंध ॥ ८३ ॥ || शिष्य प्रश्न || ॥ सवैया इकतीसा ||
दुष्टभाव पापहेतु सुष्टभाव पुण्यहेतु याते दोउं कर्ममांहि हेतुभेद मानीये, पाप उदै हे असाता पुण्य उदे होय साता याते क्षार मिष्टरूप स्वादभेद ठानीये; पापतो कुगति देय पुण्य सदगति देय गतिभेद परतक्ष फलभेद जानिये, पापतो लगे अनिष्ट पुण्य सबहीको इष्ट संकिलेस सोधि सुभानुभेद आनीये ॥ ८४ ॥ ॥ अथ गुरु उत्तर कथन ॥ ॥ सवैया इकतीसा ||
गुरु कहे पाप पुण्य दोनुं कर्म जालरूप हेतु रस गतिफल भेद नाहि लेखीये; कंपरोग पापभोग पुण्यहे अकररोग दोनं दूखखानि विनासिकरूप देखीये; पापसो अरुचिभाव पुण्यसेती प्रीतिदाव मिथ्यादृष्टि जीवकुं ए कुमति विशेषीये, दोनुं जडभावरूप दोनुंकुं अज्ञानरूप इनहीसो न्यारो सोइ समकिती देखीये ।। ८५ ।।
॥ मिथ्यामति वरणन || ॥ सवैया इकतीसा ||
पापसु विमुख अरु पुण्यहिके सनमुख सुगतिसु रुचिधरे
દ
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