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अध्यात्मगीता.
रुचिवंत थयो तेहने जोवे - संभाळे, अंतरंग दृष्टिये करीने परघेर के० ते परभावमां पोताना आत्मानी चित्त निम्न से बुद्धि तेहमां वाले नहि एटले परपरिणतिमां पेसे नहि त जीव पोताना स्वभावरूप घरमा बुद्धि प्रवर्त्तावे इति रहस्य. ॥ २५ ॥
पुण्य पाप बे पुद्गल दल भासे परभाव । परभावे परसंगत पामे दुष्ट विभाव ॥ ते माटे निज भोगी योगीसर सुप्रसन्न | देव नरक तृण मणि सम भासे जेहने मन्न ॥२६॥
अर्थः- पुण्य पाप कहेतां जे पुण्य पाप छे ते बे पुनलनां दलीयां छे, पाप छे ते कडवा विपाक छे अने पुण्य छे ते मीठा विपाक छे. ए बे जेने मन सरखा जाण्या छे. पुण्य पाप ए वे मुनिने मन परभाव भासे छे, आत्मिक धर्म नही, पुद्गलनां दलियां छे ते माटे परभाव भासे छे, वली एहवं विचारे जे परभाव जे विभावदशा, एना संगथी च्यार गतिमां रजलबुं थाय छे, तिणे करी पुण्य पाप बेहु दुष्ट विभाव छे, आत्मधर्म नहि, तथा बीजो अर्थ कहे छे, परभाव रूप विभावदशा ते परसंग तिणेकरीने दुष्ट विभाव जे मोहादिक पामे आत्मस्वरूप न पामे, तिणेकरी संसारमां फरतां अनेक प्रकारे कर्म विटंबना रूप दुःखविपाक भोगवे, पर संग थकी, ते माटे के० ते कारणे निज भोगी के० पोताना आत्मस्वभावना भोगमां वर्ते छे तेहने योगीश्वर सुमुनिराज कहिए, योग जे आत्मस्वभावना ज्ञानदर्शन चारित्ररूप ए ३ भावयोग तेमांहि जेनु मन प्रसन्न के० अकलुषित चिन्ने संकल्प विकल्प
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