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अध्यात्मगीता.
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त्माथी जे ऋद्धि जुदी ते पोतापणे जाणे नहि तेहथी अलगो रहे तेहनी रुचि पण राखे नहि. अरुचि भावे पौद्गलिक वस्तुनी उपाधियी अंतरंग न्यारो प्रवर्ने छे, त्यारे रुचि किहां छे ? ते कहे छे, रोचक के० पोताना आत्म स्वभावनी ऋद्धि ज्ञानादिकनी रुचि राखे जे पोतानी श्रद्धा प्रगटी छे ते समकित भावे अनंति शक्ति पोतानी जाणी छे तेहनी रुचि करे तेहने ध्यावे छे, तेना ध्यानमां लयलीन थयो थको प्रवः छे, कर्म टालवानो विकल्प कदी आवे नहीं एहवी श्रद्धा प्रगटी छे, पोतानुं स्वरूप ओलख्युं छे, तेहथी कर्म ते एनी मेले टली जाय ते कर्म टालवानी बुद्धि राखे नहि तेहने मोटी बुद्धिना धणी कहिये, कारणपणो न लावे जे माहरा कर्म किवारे टले इम कायर न थाय. ॥ २४ ॥
स्वगुण चिंतनरसे बुद्धि घाले। आत्मसत्ता भणी जे निहाले। शुद्ध स्याहाद पद जे संभाले। परघरे तेह मति केम वाले ॥२५॥
अर्थ:--तिवारे शुं चिंतवे ते कहे छे. स्वगुण के० पोताना आत्माने विषे ज्ञानादि अनंता गुण रह्या छे ते गुणनी चींतवणाने रसे करीने युक्त एटले ज्ञानादिकनो आत्मा रसीयो थाय तेहमें बुझि घाले के० प्रवर्तीवे, तेवारे शोगुण थाय ? ते कहे छे, ते जीव पोताना आत्मानी सत्ता जे ज्ञानादिक गुण भणी निहाले-देखे एटले आत्म स्वरूपने अंतरंग द्रष्टिये करी जोइ शुद्ध स्याद्वाद के० शुद्ध यथार्थ स्वादाद पदनोजे
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