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अध्यात्मगीता.
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परलाभे परभोगने योगे पर कार। एह अनादि प्रवर्त्त वाधे पर विस्तार ॥ १४ ॥
अर्थः--आत्मगुण ते ज्ञानादिगुण ते कर्मरूप आवरणे अवराणा तेवारे आत्मानो धर्म ज्ञानादि कीहांथी ग्रही शके ? ज्ञानादिगुण न आदरे अने ग्राहक शक्ति छे तेवारे शुं ग्रहे ? पुद्गल खंधना सर्व शेष पुद्गल जोड्या मांड्या प्रयोगे करी एटले पुद्गलनो भोगी थयो त्यारे ते शुभाशुभ पुद्गलना खंध मेळा कर्या ते पर पुद्गलने लाभे लाभपणो मान्यो १ अने शुभाशुभपर पुगलनो दान देइने दान मान्यो २ शुभाशुभ पुद्गलनो भोग मिले भोग मान्यो ३ अने शुभाशुभ परपुद्गलनो उपभोग मिले उपभोग मान्यो ४ एम दानादिक च्यार लब्धिने वली वीर्य शक्ति फोरवी तेहने योगे करी परनो कर्ता थयो. कोइ पूछे के ए जीवपर कर्त्तापणो किस्ये काले पाम्यो ? तिहां कहे छे ए अनादिनी प्रवृत्ति छे, एहवी रीते अनादिकाळनी जीवने अवळी प्रवृत्ति थइ तेथी परभावनो विस्तार एम कर्मनो विस्तार पाम्यो छे तेणे करी संसार खूटतो नथी. ॥ १४ ॥
एम उपयोग वीर्यादि लब्धि । परभाव रंगी करे कर्म वृद्धि ॥ परदयादिक यदा सुह विकल्पे । तदा पुण्य कर्मतणो बंध कल्पे ॥१५॥
अर्थः--एहवी रीते वीर्यादि पांच लब्धिने विषे जीवनो अवलो उपयोग वत्यो, त्यारे पोताना स्वभावतुं वीर्यपणं टल्यु
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