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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६२ दे० चो० बा० अनंतो काल थयो, पण आत्महित थयुं नहीं, तेमाटे ए पुद्गलना संगथी बाह्याभीड वधे, माटे उत्तम जीव, एहने ग्रहे नहीं, एम राजुले विचार्यु, जे एने पण ग्रह नहीं, केमके एना ग्राहक तो अनंता जीव निगोदमध्ये पड्या छे ॥३॥ इति तृतीयगाथार्थः ॥ रागीसंगें रे रागदशा वधे, थाए तिणे संसारो जी ॥ नीरागीथी रे रागनुं जोडवू, लहिएं भवनो पारो जी ॥ ने० ॥ ४ ॥ अर्थः--हवे पांच, जीवद्रव्य ते अनेक आत्मा छे, बली स्वजाति पण छे, माटे तेहने ग्रही राग करीये, परंतु एक अवगुण एहमां पण दीठो, ते कहे छे, जे संसारी जीव तो राग द्वेष संयुक्त छे, माटे तेहनो संग कीधे तो आपणने पण राग दशा वधे, अने रागदशा तो अभिनवबंधनो हेतु छे, अरिहंतदेवनां आगम जोता अने आत्मधर्म जोतां, राग तो तजवा योग्य छे, रागथी चार गतिरूप संसार थाए वधे, माटे ए पण आत्महित नहीं, ते माटे नीरागी, वीतराग, परमचारित्री, सर्वभावपरत्यागीथी, जो राग जोडीयें, तो भवनो पार पामीये, यद्यपि क्षय तो रागनोज करवो छे, पण प्रथम राग पलटाववानो ए उपाय छे, जे नीरागीथी राग जोडी यें, एटले ते नीरागी राग करे नहीं, तेथी अनुक्रमे ए आपणो राग पण क्षय पामे, तेवारे ए आत्मा वीतरागभात्र भजे ॥ ४ ॥ इति चतुर्थ गाथार्थः ॥ २२० For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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