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दे.
चा.
बा.
॥अथ चतुर्विंश श्रीमहावीरजिन स्तवनं॥
॥ ढाल कडखानी देशीएं चाले छे । तार हो तार प्रभु मुझ सेवक भणी, जगतमा एटलुं सुजश लीजें ॥ दास अवगुण भस्यो जाणी पोतातणो, दयानिधि दीनपर दया कीजें ॥ता०॥१॥
अर्थः-कोइक अवसरे श्री जिनागमना अभ्यासें करीने संसार भ्रमण ज्ञानावरणादि आवरणे आवृत पोतानी अनंत आत्मशक्ति जाणीने अनादि परभावानुषंगता दोषने दुःखें उद्विग्न आत्मा ते पोतानी साधकता शक्ति अणदेखतो परमनिर्यामक समान चोवीशमा श्रीवीरनाथना चरण शरण निर्धारीने, श्री वीरप्रभुनी आगल प्रार्थना सहित, विनंति करे छे. जे हे नाथ! हे दीनदयाल ! हे प्रभुजी ! मुज सरिखो जे तत्वसाधन तथा आज्ञा निर्वाहमां असमर्थ, तेने मात्र नामयी सेवक जाणी तार तार !!! ए गुणरोधक रूप दुःखथी निस्तार !!! तुज सरीखा प्रभु विना बीजा कोने कहूं ? जगतमां एटलं सुजश लीजें, यद्यपि प्रभु तो जशना कामी नथीं, परंतु उपचारें भक्ति आतुरताएं कहे छे, जे मुज सरीखो दास ते यद्यपि राग, द्वेष, असंयम, अनुष्टानाशंसादि दोष, एकांतादिदोष, अनादरादिदोषरूप अवगुणें करी भरयो छे, तो पण ताहरो कहेवाय छे, तेमाटे हे दयानिधि ! केतां भावकरुणाना निदान ! दीन जे हुं रंक, अशरण, दुःखित, तत्त्वशून्य, ज्ञानादि संपदारहित, भाव
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