SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्विंश श्री माहावीरजिन स्तवनं. E दरिद्री, मार्गनो विराधक, असंयमसंचारी, महाविकारी, तमारी आज्ञाथी विमुख, अनादिनो उद्धत एहवा मुज ऊपर दया करीजें ताहरी कृपा तेहीज त्राण ( शरण ) थशे. यद्यपि अरिहंत तो कृपावंतज छे, तो कृपा शी करवी छे ? तो पण अर्थी विचारे नहीं माटे अर्थीनुं ए वचन छे, जे दयावंतनेज एम कहेवाय छे, जे हे देव ! तमें दयाना भंडार छो, तमनेंज अवलंबे तरीश, एज सत्य छे ।। १ ।। इति प्रथम० ॥ रागद्वेषें भस्यो मोह वैरी नड्यो, लोकनी रीतमां घणुंए रातो ॥ क्रोधवश धमधम्यो शुद्धगुण नवि रम्यो, भम्यो भवमांहे हुं विषय मातो ॥ ता० ॥ २ ॥ अर्थः- दास बहेद छे, रागद्वेषं भर्यो, जगत्‌मां पड्यो, गुणीथी ईर्ष्या करे के मोह जे मुंजितपणं ते तत्त्वनी अजाणता विपर्यासता, हेतुयें मोहवेरी नड्यो तेथी दबाणो छे, तथा लोकनी जे रीत केतां चाल तेमांहे घणोज मातो छे, लोकनी चाल मांहे मन छे, लोकरंजननो अर्थी छो, क्रोध जे ताता चंडपरिणाम तेहने विषे धमधमी रह्यो छे, जेम धमण धमतां अग्नि तपे, तेम तपी रह्यो छे, शुद्ध गुण जे सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान, शुद्धचारित्र, क्षमा, मार्दव, आर्जवादि आत्मगुण, तेने विषे रम्यो नहीं, तन्मयी न थयो. ते रूप न ग्रं. वली भम्यो चतुर्गतिरूप भवचक्रमांहे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप संसार तेने विषे हुं विषय जे पंचेंद्रियना स्वाद, तेमांहे मातो केतां मग्न थयो, विषयग्रस्त थयो यको एम संसारचक्र अनु २३३ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy