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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४६ अध्यात्मगीता. समभिरूढ नये निरावरणि ज्ञानादिक गुण मुख्य। क्षायिक अनंत चतुष्टयी भोगी मुग्ध अलक्ष्य ॥ एवंभूते निरमल सकल स्वधर्म प्रकाश । पूरण पर्याय प्रगटे पूरण शक्ति विलास ॥१०॥ अर्थः-सममिरूढनयमते शुक्रध्यानरूप असियेकरी घाती कर्मने क्षये निरावर्णपणे ज्ञानादि अनंतगुण रूप लक्ष्मी प्रगटे एटले मुख्य लक्ष्मी प्रगटे अने क्षायिकभावे अनंत चतुष्टय प्रगट्या अनंतज्ञान १ अनंतदर्शन २ अनंतचारित्र ३ अनंत वीर्य ४ तेहना भोगी तेरमे चौदमे गुणठाणे केवली भगवान् जाणवा. तेहनो जाणपणो भोला अजाण जीव न जाणे, एवं मूतनयमते कर्म मळ रहित निर्मल सकलसंपूर्ण पोतानो ज्ञानादिक स्वधर्म आत्मसत्ताने विषे प्रकाश करे प्रगट करे छे एवो धर्मनो प्रकाश प्रगट्यो एटले एक एक प्रदेशे अनंता जे पर्याय ते संपूर्ण प्रगट्या छे सकल गुणना पर्याय पोताने कार्य करवे प्रवर्त छे तेवारे पूर्ण पर्याय प्रगटे छे ते संपूर्ण शक्तिनो विलास भोगववो प्रगटे. इत्यर्थ. सादि अनंत भांगे करी एवंमूतनये सिद्धनुं स्वरूप वखाण्यु. ॥ १०॥ एम नय भंग संगे सनूरो। साधना सिद्धतारूप पूरो । साधक भाव त्यां लगी अधूरो। साध्य सिद्धे नहि हेतु शूरो ॥ ११ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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