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अध्यात्मगीता.
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श्राद्धः सामायिके स्थितोऽपिमनोभावाद्गृहेगतस्तदाकेनाऽपिपृष्टंश्राद्धः कुत्रगतः एवं पृष्टे सत्यपिअधुना भणितं ममस्वामी गृहेगतः एम कडं अने-शब्दनयमते पोतानी आत्मसत्ताने जोतो ज्ञानदर्शन चारित्रादिक अनंतो धर्म पोतानी आत्मसत्ताने विषे रह्यो छे, तेहने प्रगट करवा इहतो-वांछतो थको शुद्ध निर्मल अरूपी पुद्गलादि विभावदशा रहित चेतना लक्षणो पोताना क्षयोपशमयी स्वगुणने साधकपणे प्रवर्ततो ते शब्दनयजीव कहीए, इहां जेटली आत्मप्रवृत्ति नवाकर्मने न ग्रहे अबंधक थाय तेटलो जीवपणो गवेखे एटले एहवा जीवने जे समये उपयोग होय ते समये नवा कर्मनो ग्रहवो न करे ॥८॥
इणिपरे शुद्ध सिद्धात्म रूपी। मुक्त परशक्ति व्यक्त अरूपी ॥ समकिति देश यति सर्वविरति । धरे साध्यरूपे सदा तत्त्व प्रीति ॥ ९॥
अर्थः--एणिरिते शुद्ध सिद्धात्मरूपी शुद्ध जे सिद्ध भगवान् ते सरीखो निज आत्मा ध्यावतो आत्माभावे विचरतो आत्मस्वरूपी छे. ए मुक्त के० परपुद्गलादिक विभावथी मूकाणो छे पर के० उत्कृष्टशक्ति के० आत्म सामर्थता व्यक्त के० प्रगटपणे तेणे अरूपीभावना साधक समकिति, देशविरति तथा सर्व विरति ते जीवने साध्यपणे तत्त्वनी प्रीत वाल्हाश छे, एहवा जीवतेहने शब्दनये जीव कहीये० पोतानो आत्मतत्त्व निरावरण करवारूप जे वेद्यो छे तेहने विषेज तेहनी प्रीति लागे, परपरिणतिने विषे नहि. ॥ ९॥
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