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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'श्रीदेवचंद्रजीकृत विशति विहरमानजिन स्तवनं. ७९७ .. -. - . --. - ॥ अथ एकादश श्री वज्रधरजिन स्तवनं ॥ .. ॥ नदी यमुनाके तीर ॥ ए देशी ॥ विहरमान भगवान, सुणो मुज विनति ॥ जगतारक जगनाथ, अछो त्रिभुवन पति॥ भासक लोकालोक, तिणे जाणो छती ॥ तो पण वितक वात, कहूं छं तुज प्रति ॥ १॥ हूं सरूप निज छोडि, रम्यो पर पुद्गलें ॥ झील्यो उलट आणी, विषय तृष्णाजलें ॥ आश्रव बंधविभाव, कळं रुचि आपणी ॥ मूल्यो मिथ्यावास, दोष द्यु परभणी ॥ २ ॥ अवगुण ढांकण काज, करुं जिनमत क्रिया। न तनुं अवगुण चाल, अनादिनी जे प्रिया ॥ दृष्टिरागनो पोष, तेह समकित गणुं । स्याद्रादनी रीत, न देखें निजपणुं ॥३॥ मन तनु चपल स्वभाव, वचन एकांतता ।। वस्तु अनंत स्वभाव, न भासे जे छता ॥ जे लोकोत्तर देव, नमु लौकिकथी । दुर्लभ सिद्ध स्वभाव, प्रभो तहकीकथी ॥ ४ ॥ महाविदेह मजार के, तारक जिनवरु ॥ श्रीवज्रधर अरिहंत, अनंत गुणाकर ॥ ते नियामक श्रेष्ठ, सही मुज तारशे ।। महावैद्य गुणयोग, रोग भव बारशे ॥ ५॥ प्रभुमुख भव्य स्वभाव, सुणुं जो माहरो ॥ तो पामे प्रमोद, एह चेतन खरो ॥ थाये शिवपद आश, राशि सुखवृंदनी ।। सहज स्वतंत्र स्वरूप, खाण आणंदनी ॥ ६ ॥ वलग्या जे प्रभुनाम, धाम वे गुण तणा ।। धारो चेतन राम, एह थिरवासना । देवचंद्र जिनचंद्र, हृदय स्थिर थापजो । जिन आणायुक्त भक्ति, शक्ति मुज आपजो॥७॥ इति एकादश श्रीवजंधरजिन स्तवनं॥११॥ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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