SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम श्रीऋषभजिन स्तवन. किवारे अनुभवी नथी, ते. परमेश्वरथी प्रीतिनो अर्थी प्रीतिनी चाल अजाणतो पूछे छे, जे हे चतुर डाह्या ज्ञानी आचार्यादिक पुरुषो! अथवा पोतानो आत्मा ते जातें चतुर छे, तेहने पूछे छे, के ते प्रीतिनो विचार कहो जे नजीक होय, तेथी प्रीति बने, पण प्रभुजी तो सर्व रीतें अलगा रह्या छे. प्रथम द्रव्यथी हुँ अशुद्धपरिणतिविभागकर्मानुयायी, पुद्गलभावभोगी, तेथी अशुद्ध द्रव्य छु, अने श्रीभगवान् तो शुद्धपरिणामी, सकल निरावरणस्वभावी, निःकर्मा, अनंत अक्षयज्ञानादिस्वगुणभोगी, तेथी शुद्गव्य छे. बीजु क्षेत्रेकरी हुं संसार क्षेत्री, शरीरावगाही छु, अने श्रीऋषभमभु तो लोकांतक्षेत्र रह्या छे, अशरीरी, स्वप्रदेशावगाही छे, तेयी क्षेत्रे करी मिन्न छैयें, तेमज त्री काले पण भिन्न छैये. अने भावी हुँ रागी, द्वेषी, तथा अढार पापस्थानकें भर्यों छु, अने श्रीदेवाधिदेव तो नीरागी, सर्वपापस्थानरहित छे, माटे श्रीप्रभुजी, हमणां तो सर्व रीतें मुझथी वेगला वसे छे. वली अलगाने पण वचनादिके मलिये, पण श्रीऋषभदेव सिद्ध थया, तिहां सिद्ध अवस्थामां कोई वचननु उच्चार नथी, त्यारे प्रीति केम कराय ? ॥ इति गाथार्थः॥१॥ कागल पण पहोंचे नहीं, नवि पहोंचे हो तिहां को परधान ॥ जे पहोंचे ते तुम समो, नवि भांखे हो कोईनु(नो)व्यवधान॥RO२॥ अर्थः-तथा एक बीजो पण प्रीति करवानो उपाय छ, जे कागल वडे प्रीति थाय छे, पण सिद्धने विषे कागल पण For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy