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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४८ दे० चो० बा० त्यागेन च तत्काले यच करोति तदेकमात्र निष्ठतया तत्प्रीत्यनुटशनं ज्ञेयमिति. " जिहां आचरण करवावालानुं अति आदर सहित उद्यमनुं अतिशयपणं होय, ते प्रीति जाणवी, ते प्रीतिना विलास विना चाले नहीं, माटे तेहना रुचि अभिलाषी जीवें बीजां सर्वे कार्य तजीने तेहज करवं तथा तिहांज एक निष्ठा प्रतीति करवी, तेने प्रीतिजनुष्ठान जाणवुं ॥ इति भावार्थः ॥ ते प्रीति संसारी भावी सर्व जीवोने छे, पण ते पलटावीने गुणीथी करवी, ते कहे छे. ॥ अथ प्रथम श्रीऋपभजिन स्तवन ॥ || निडी वेरण हुई रही ॥ ए देशी || ऋषभ जिणंदशुं प्रीतडी, किम कीजें हो कहो चतुर विचार ॥ प्रभुजी जइ अलगा वश्या, तिहां किर्णे नवि हो कोइ वचन उच्चार ॥ ऋ० ॥ १९ ॥ अर्थः- श्रीनाभिकुलचरनी भार्या, श्रीमरुदेवी स्वामिनीनी कुक्षिनेविषे उत्पन्न थईने जेणे अटार कोडा कोडी सागरोपम सुधी, निर्वाण मार्गनुं विन हतुं ते निवार्य, एवा श्री ऋषभदेव प्रथम तीर्थकर, रागद्वेष रहितताथी जिन कहियें, तथा उपकारसंपदा, अने अतिशय संपदायकरि विराजमानताथी जिणंद कहियें. तेनाथी प्रीतिविलास करवानो अर्थी भव्य जीव, मोक्षामिलाषी विचारे हे जे, नीरागी ऋषभ पुरुषोत्तम साथै शी रीतें प्रीति कीजें ? ए वीतरागथी प्रीति, माहारा आत्मायें पहेलां For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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