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द्रव्यप्रकाश.
॥ सवैया इकतीसा ॥ करताहुं भोगताहुं निरंतर कारजको एसो अगन्यान जेतो कालमौकी रह्यौ है, तो काल सुद्ध अनुभव न लहतु विनुं अज्ञानि जन मन भमनकुं गयौ हैं। अब सर्वज्ञ जिन वचन अमृत पीन अति रसवंत संत संत रस लह्यौ हैं, चिरकाल पान करि सुधितस ध्रुति वरि अजर अमर परब्रह्म पद लह्यौ हैं ॥ ११८ ॥
॥ पुनः सवैया तेवीसा ॥ आतमरूपके जानपने विनुं चेतनयौ करतार कहिजे, ताहीके जानपने जिन ज्ञानमे यामैं अकारक भाव लहिजै; याहिते रागरुद्वेष उदैकृतमोवित नांहि चितैयुं धरिज, मिन्न रह्यो निज लेखे जु मानव सो नव अभवमांहि न खीजे. ११९
॥ पुनः आत्मस्वरूप ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ जांलगी अविद्या जन्य दृढतम अंधतम ताहिमे तिमित भयो निज जोति हरिके, तां लगि विभाव एष राग द्वेष रेषपरि आतमीक बुद्धि भयी एकभाव वरिक, अब चिरकाल गिर नदीकै उपल जैसे भेदज्ञान गुन लह्यो तिकरन करिकै, तब पररीति हर आप पूर्णब्रह्मसेती विच्युति विकृति ध्रुव भयो गुनवीरके ॥ १२० ॥
॥ आतमाहंकार कथन ॥ अडिलमें अज्ञानमें सुप्तरह्यौ परध्यानमें जाग्यो जान्यौ तत्व तोहि गुनमानमें, ज्युं दरिद्र लही द्रव्य अधृति चित्तमें करै तैसे असत ज्ञानपाइ ज्ञानसुख जन वरे ॥ १२१ ॥
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