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अष्टम श्रीचंद्रप्रभजिन स्तवनं.
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६ जेवारें साधक जीव दशमे सूक्ष्मसंपराय गुणठाणे चढ्यो शुक्लव्यानना प्रथम पायाने अंतें आव्यो, परमनिर्मलभाव वर्यो, ते वेलाए जेटली आत्मगुणनी साधना करता योगवीर्यनी सहायें साधकता थाय, ते सर्व अपवादें छे, अने उत्सर्गमार्गे तो योगधर्म पण आत्माने तजवा योग्य छे, ते पण तेकाले साधनारूप छे, तेमाटे इहां कारणिक ग्रहो, पण स्वरूपमध्यें नहीं. अने जेटलं कारणरूप लहियें, ते सर्व अपवाद छे, माटे दशमे गुणठाणे समभिरूदनये अपवाद भावसेवना छे, ए पण साधकनां आसन छे.
७ जेवारें शुक्कुध्यानने बीजे पाये एकत्ववितर्क अप्रविचाररूपें चड्यो भावमुनि निर्विकल्प समाधि वरयो, स्वरूप - कत्वें परिणम्यो, तेवारें साधनानुं पूर्णपणं थयुं. ते माटे एवंभूतनय सेवना यह तो कोइ पूछे जे अयोगी गुणठाणा सभी साधना छे, तो इहां क्षीणमोहगुणठाणे सेवनानो एवंभूत केम कहो छो ? तेने उत्तर कहे छे जे अयोगी सुधी तो उत्सर्गसाधना छे, अने इहां तो अपवादसाधनानो अधिकार छे, तेथी अपवादसाधना इहां पूरी थइ. वली कोइ पूछे जे अमम निर्मोह अवस्थामां शं अपवादपणु छे ? तेहने उत्तर. जे शुक्र व्याननो वीजो पायो पण हजी सचेतनानुं एक आत्मधर्मे राखवं, ते प्रयोग छे. हजी सयोगवीर्य उदेकानुगतनुं सहाय छे, तथा श्रुतज्ञाननुं आलंबन छे, अने क्षयोपशमी श्रत ते उत्कृष्ट उत्सर्गे मूल आत्मिक वस्तुधर्मे नथी अने तेहं आलंबन छे, तिहां सुत्री अपवाद छे. ते माटे निर्मोही बारमे गुणस्थानके एवंभूतनयें अपवादें भावसेवा जाणवी एं
दी
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