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श्री महो० देव० कृत अतित जिन चोविशी.
सहज अनंत अत्यंत महंत
सुखे भस्या हो लाल ॥ म० ॥ अविनाशी अविकार अपार गुणे
वस्या हो लाल ॥ अ० ॥ ५॥ जे प्रवृत्ति मूल छेद
उपाय जे हो लाल ॥ छे०॥ प्रभु गुण रागे रक्त थाय
शिवदाय ते हो लाल ॥ था० ॥ अंश थकि सरवंश विशुद्धपणु
ठवे हो लाल ॥ वि०॥ शुकल वीज शशि रेह तेह
पूरण हुवे हो लाल ॥ तेह०॥ ६ ॥ तिम प्रभुथी शुचि राग करे
वीतरागता हो लाल ॥ करे० ।। गुण एकत्वे थाय स्वगुण
प्राग्भावता हो लाल ॥ स्वगुण० ॥ देवचंद्र जिनचंद्र सेवामांहि
रहो हो लाल ॥ सेवा०॥ अव्याबाध अगाध आतम सुख
संग्रहो हो लाल ॥ आ०॥ ७॥
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