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पंचदशम श्री आस्ताग जिन स्तवन.
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॥ अथ पंचदशम श्री आस्तागजिन स्तवन ॥
॥ मन मोह्युं अमारूं प्रभु गुणे ॥ ए देशी ॥
करो साचो रंग जिनेश्वरू, संसार विरंग सहू अन्यरे ॥ सुरपति नरपति संपदा,
ते तो दुरगंधी कदन्नरे ॥ करो० ॥ १ ॥
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जिन आस्ताग गुण रस रमी, चल विषय विकार विरूप रे ॥ विण समकित मते अभिलखे, जिणे चाख्यो शुद्ध स्वरूपरे ॥ क० ॥ २ ॥
निज गुण चिंतन जल रम्या, क्रोध अनलनो ताप रे ॥
तसु नवि व्यापे कापे भवस्थिति,
जिम शीतने अर्क प्रतापरे ॥ क० ॥ ३ ॥
जिन गुण रंगी चेतना,
नवि बांधे अभिनव कर्मरे ||
गुण रमणे निज गुण उल्लसे, ते आस्वादे निज धर्मरे ॥ क० ॥ ४ ॥
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