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अष्ट प्रवचन, मातानी सइझाया. १०१९ बग पेरे ठगता मूरख लोकने, बहु भमसे तेह दीन ॥ सुगु०॥१५॥ अध्यातम परिणति साधन ग्रही, उचित वहे आचार । सुगु०॥ जिन आणा अविराधक पुरुष जे, धन्य तेहनो अवतार ॥ सुगु०॥ १६ ॥ द्रव्य क्रिया नैमित्तिक हेतु छे, भावधर्म लयलीन । सुगु० ॥ निरुपाधिकता जे निज अंशनी, माने लाभ नवीन ॥ सुगु० ॥ १७ ॥ परिणति दोष भणी जे निंदता, कहेता परिणति धर्म । सुगु०॥ योग ग्रंथना भाव प्रकाशता, तेह विदारे हो कर्म ॥ सुगु० ॥१८॥ अल्प क्रिया पण उपकारोपणे, ज्ञानि साधे हो सिद्ध । सुगु० ॥ देवचंद्र सुविहित मुनिवृंदने, प्रणम्यां सयल समृद्धि ॥ सुगु० ॥ १९ ॥
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