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द्वितीय श्री निर्वाणी प्रभुनु स्तबन. ८११ ॥अथ द्वितीय श्रीनिर्वाणी प्रभुनु स्तवन ॥ ॥ वीरजी प्याराहो वीरजी प्यारा ॥ ए राग ॥ प्रणमुं चरण परमगुरु जिनना, हंस ते मुनि जन मनना ॥ वासी अनुभव नंदन वनना, भोगी आनंद घनना ॥ १ ॥ मोरा वामो हो तोरो ध्यान धरीज, ध्यान धरीजे हो सिद्धि वरोजे, अनुभव अमृत पीजे, मोरा स्वामी हो तोरो०॥ ए आंकणी ॥ सकल प्रदेश समा गुण धारी, निज निज कारज कारी ॥ निराकार अवगाह उदारी, शक्ति सर्व विस्तारी ॥ मोरा० २॥ गुण गुण प्रति पर्याय अनंता, ते अभिलाप्य स्वतंता ॥ अनंत गुणानभिलापी संता, कार्य व्यापार करंता ॥ मोरा० ३॥ छति अविभागी पर्यय व्यक्ते, कारज शक्ति प्रवर्ते ॥
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