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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सप्तम श्री सुपार्श्वजिन स्तवनं. ६०९ एम द्रव्यार्णव तथा आप्तमीमांसादिक अनेक ग्रंथोमां कहां छे, माटे आत्मानी जेवारे भेदव्याख्या करिये, तेवारे गुण अनंता, एक एक गुणने विषे अविभाग अनंता, एक एक अविभागने विषे अनंता पर्याय, ए कम्मपयडीने विषे व्याख्या देखाय छे, अने तेज अविभाग तथा पर्यायनुं एकपणं पण श्रीभगवतीनी टीकामा देखाय है, अने संक्षेप्त व्याख्यायें गुणपर्याय हुने एक पर्यायास्तिक कही बोलाव्या के. एम मतिविभ्रम टालीने श्रद्धा राखवी. इहां श्रीअरिहंत द्रव्यने विशेषे ओलखावचा निमित्तें गुणगुणनी जुदी जदी व्याख्या जणाववा माटे तथा पोतानी सत्तानी रुचि प्रगट करना माने गुणगुणनो जुदो जुदो धर्म कही स्तवना करिये छैयें. ए प्रशस्ति यइ. ॥ हो सुंदर तप सरिधुं जग कोइ नहीं | ए देशी ॥ श्री सुपास आनंदमें, गुण अनंतनो कंद हो । जिन जी ॥ ज्ञानानंदें पूरणो, पवित्र चारित्रानंद हो ॥ जि० ॥ श्री० ॥ १ ॥ अर्थः- श्री सुपार्श्वप्रभु आनंदमयी छे. शुद्ध आनंद ते एने विषे छे, जेमांहे परनो मेल नथी, स्वरूप सुख छे, वली सुपार्श्वप्रभु के हवाले ? के गुण जे सहभावी श्रिता गुणाः ' एटले द्रव्य जे समुदाय तेहने गुण, पण तेमां अन्य गुणपएं नहीं, गुणमध्ये ॥ सव्वे सपज्जावा गुग्गा इति कल्पभाग्यवचनात् ॥ तथा अपज्जावे 77 ५३ For Private And Personal Use Only अथवा 'द्रव्याआश्रि रह्या ते तो पर्याय छे.
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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