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दे० चो० बा०
Annanoharyana
गुणठाणथी मांडीने सिद्धपर्यंत जे गुणनी वृद्धि करवी, एटले अभिनव गुणनुं कारणपणुं ते सर्व ज्ञान, दर्शन, चारित्र, श्रेणिगत ध्यान परिणाम, क्षयोपशमीभाव, विधिसहित आचरणा, तथा भक्ति, अने गुणीनुं बहुमान, जेथी पोताना कार्यनी सिद्धि निपजे.. ते ज्ञानक्रियारूप साधक अवस्थानी तरतमता ए सर्व असाधारण कारण कहे. ए असाधारण कारण ते आत्मगुणरूप उपादाननी भिन्न भिन्न ऊणताथकानी अवस्था छे, सदा पूर्व पर्याय उत्तरपर्यायतुं कारण छे, ते समयेंज क्रियाकाल निष्टाकालनो अभेद छे. ए असाधारण कारण कह्यो. ॥१०॥ इति॥ नरगति पढम संघयण, तेह अपेक्षा जाणो ॥ निमित्ताश्रित उपादान, तेहने लेखे आणो ॥११॥
अर्थः-हवे सिद्धतारूप कार्यन अपेक्षा तथा निमित्त ए बे कारण कहे छे. नर केतां मनुष्यनी गति, पढम केतां पहेलं संघयण वज्ररुषभनाराच, पंचेद्रिपणुं इत्यादि सिद्धतारूप कार्यनुं अपेक्षा कारण जाणो. इहां कर्तानो व्यापार नथी, पण ए निश्चें जोइयें. ए पाम्या विना मोक्षरूप कार्यनी साधना थाय महाँ, तेमाटे अपेक्षा कारण कहीयें, पण ए मनुष्य गत्यादिक सर्व जे जीवन उपादान परिणमन, धर्मार्थी थइने निमित्त जे देव गुरु सिद्धांत तेहने जेणे आश्रयो, तो तेहनी मनुष्य गत्यादिक लेखे केतां कारणपणे आणजो, अने जेणे निमितने आश्रयो नथी. तेहनी मनुष्यगत्यादिक कारणपणामां गणशो नहीं, ते हजी अनादिनी चालमां छे, पलटण करतो नथी. सेमाटे ए अपेक्षा तथा निमित्त ए बे कारण कह्यां ॥११॥इति।।
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