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अष्टादश श्री अरनाथजिन स्तवनं.
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अर्थः--हवे सिद्धतारूप कार्यना चार कारण देखाडे छे. सिद्धतारूप कार्य ते आत्मानुं अभेदस्वरूप छे, माटे एहनो कर्ता आत्मा द्रव्य पोतेज छे, अने सिद्धपणुं ते आत्मानु कार्य छे, जे आत्मा सिद्धताने परमानंदपणे जाणे. तथा एहीज माहरूं हमणां करवान कार्य छे, ए कार्य करवानी रुचि विना अनंतो काल संसारमा भम्यो स्वरूपभ्रष्ट थयो, माहामोहें ग्रह्यो. हवे में माहरो मूलधर्म श्रद्धाभासन गोचर कर्यो तेथी ए कार्य करवू एम निर्धार करी तदनुगत चेतनावीर्ये करीने स्वस्वरूप करवानो कर्ता थयो, तो सिद्धताना कार्यने निपजावे, ते आवी रीतें जे प्रथम तो अंशेक" थाय, पछी गुणवृद्धि थवे, संपूर्ण कापणुं पामीने कार्य नीपजावे. हवे ए सिद्धतारूप कार्यनो उपादान कारण कहे छे, जे पोताना सत्तागत ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्यादिक, अनंतगुण छे, तेहिज पोतानुं सत्तागत धर्म ते सिद्रिरूप थाय छे, माटे तेहीज उपादान कारण जाणवू. उपादान ते वस्तुनो मल धर्म अरूपी सत्ता तेहीज सिद्ध थाय छे, ए सिद्रतारूप कार्य- उपादान कारण देखाड्युं ॥९॥ इति नवम गाथार्थः ॥ योग समाधिविधान, असाधारण तेह वदे रो॥ विधि आचरणा भक्ति, जिणें निज कार्य सधेरी॥१०॥
अर्थः--हवे सिद्धतारूप कार्यतुं असाधारण कारण केहे छे. मन, वचन अने कायाना योग तेहने द्रव्यथी तथा भावथी स्वगुणरमणमां अरागी, अद्वेषीपणे प्रवर्त्ताव, ते आत्मसमाधि कहीये तेनो जे विधान केतां करवो एटले चोथा
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