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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०० द्रव्यप्रकाश -~दस हे, एतै सगवन हेतु कर्मबंधहीकै खेत ताके भेद चौ प्रकृति थितिरस देस है; प्रकृति सभावथिति कालठहरा वरस चिकणाई दल समुदाय परदेस हे, करे निजनिज काज भावकर्मके समाज मोदकको दृष्टांत च्यारोमे अवस हे ।। १३ ॥ ॥ कर्म अष्टप्रकार कथन ॥ ॥ सवैया इकतीसा ॥ प्रथम ज्ञानावरणीय ज्ञानको अछादलेय आंखपर पट जैसे याको सब दाव हे, भेदमति आदि पंच पांच्यो निज गुण वंचे क्षायकक्षयोपशम यामे दोय भाव हे; दरसन उछेदक दरसना वरनीय प्रतिहारसम ध्रुवबंधी ठहराव हे, दंसनावरन च्यार निंद पांच परकार यामे दोय भाव मोहद्रष्टिको उपाव हे ॥ १४ ॥ वेदनीकरमभर अव्याबाव रसहर ताके दोय भेद एक साताभी असाता हे, असाताको पाप हेतु साता हेतु पुण्य होत मधुलेपयुत असिधारासी चटात हे; मोहनीके भेद दोय सनके तीन भेद जगमे कहात हे, मिथ्यामोह मिश्रमोह समकित कंखामोह तिनौइ प्रकृति निज गुनकेरे घात हे ॥१५॥ ॥मिथ्यामतवरणन॥ ॥ सवैया तेवीसा॥ देहसौ प्रीत प्रतीत अनीत सौ पून्यकी रीत सौ जाकी मिताई, जीव अजीव विवेककी ढेक न जानत नां कछु आप पराई; करै बहिरंग दयादि क्रियाफुनि अंतर ज्ञान भगति न पाई, चंद कहे जिनचंद कृपावसि ऐसी मिथ्यामति जाई पुलाई For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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