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अध्यात्मगीता.
अर्थः-आत्मस्वरूपने उपयोगे वर्ते वेवारे एक दम्पने विषे अनंतागुण छे ते मध्ये एकेका गुणमे अनंता पर्याय छे. जे जीम हता तेम परतित थइ तेवारे शुं थयुं ? आत्मा पोताना स्वभावनो कर्ता भोक्ता थयो. परभावना कादिकनी मूल मटी गइ, एटले निर्भय थयो एवी श्रद्धाने योगे प्रतीत प्रगटी त्यारे जाणपणुं पोतानुं छतु थयु, जेवारे ओलल्यो तेवारे तेहर्नु आलंबन करवा मांडयुं त्यारे चेतना वलगी आत्मतत्व जे ज्ञानादिकने विषे ॥ २० ॥
इंद्र चंद्रादि पद रोग जाण्यो। शुद्ध निज शुद्धता धन पिछाण्यो॥ आत्म धन अन्य आपे न चोरे। कोण जग दीन वळी कोण जोरे ॥२१॥
अर्थः--एबुं ज्यारे खरुं भासन थयुं त्यारे इंद्रनी पदवी चक्रवर्तिपणुं वासुदेवपणुं ए औदयिक सिद्धि इंद्रियजनित पौद्लिक सुख ए सर्व रोग जाण्या, शुक्रनिज के० शुद्ध निर्मल पोताना आत्मानो शुद्धतापणो जे ज्ञानादिक धन जे पोतानी भावऋद्धि हती ते जाणी ओळखी पोताना आत्मानी ऋद्धि जे अरूपी धन ज्ञानादिक भाव लक्ष्मी स्वगुण पर्यायरूप तो स्वाधीन छे. कोइथी आपी अपाती नयी एटले अरूपी वस्तु कोइयी आपी जाय नहि, कोइनी लेवाय नही, त्यारे मागवानुं दीनपर्ण टळ्यु अने जगतने विषे कोइ एवो दीन नयी जेहने आपे अने कोइयी आत्मानी ऋद्धि लेवाय नहीं एवो
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