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अध्यात्मगीता.
४५३
आत्म शक्ति करी गंठी भेदो। भेद ज्ञानी थयो आत्मवेदी ॥ १९ ॥
अर्थः--घणा जीव एवा शुझगुरुथी बोध पामे, एवी रीते सद्गुरुनी संग-सेवा थकी घणा जीवने समकितनी प्राप्ति होय, कोइ वली गुरुनी योगवाइ विना भवस्थिति पाकी हुइ तो कोइक जीव सहजथी बोध पामे एटले कोइक जीव सहजयी बोध पामे एटले कोड़क जीव सहजयी च्यार प्रत्येक बुद्धादिकनी पेरे समकित पामे गुरुना उपदेश विनाज इत्यर्थः जीव पोताना आत्मानी रागद्वेष परिणाम भावकर्मनी गांठ आत्माने पुद्गल शुं ममत्वता एकीभूत ते संठ जे अनादिनी छे. ते पोतानी शक्तिए करीने भेदे, ज्यां ग्रंथीभेद करतो त्यांतो पोतानी आत्मशक्तिए अपूर्व करण के० पहेला कदि न आव्या एवा परिणाम ते अपूर्व करणरूप पोताना वीर्योल्लासे करिने रागद्वेषनी गांठ भेदे तो समकितनी प्राप्ति पामे, गुरुना योग विनाये तेवारे इयो गुण निपजे ? ते कहे छे, भेदज्ञान जे शरीर आत्मानो भेद विवेक मिन्नता वेचणरूपज्ञान थयुं. शरीर जड ते अचेतन छे, आत्मा चेतन छे. एहयो भावथी न्यारो ओलख्यो ते भेद ज्ञान थयुं, त्यारे आत्मानी ऋद्धि हती ते जाणी तेवारे आत्मस्वरूपनो वेदीजा थयो. ॥ १९ ॥
द्रव्य गुण पर्याय अजानी थइ परतीत । जाण्यो आतम कर्ता भोक्ता गइ परभीत ॥ श्रद्धा योगे उपन्यो भासन सुनये सत्य । साध्यालंबी चतना बलगि आतम तत्व ॥२०॥
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