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दे० चो० वा०
॥ अथ एकादश श्री श्रेयांसजिनस्तवनं ॥
॥ प्राणी वाणी जिनतणी, तुझें धारो चित्त मझार रे ॥ ए देशी ॥
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श्री श्रेयांस प्रभुतणो,
अति अद्भुत सहजानंद रे ॥ गुण एक विधत्रिक परिणम्यां, एम गुण अनंतनो वृंद रे ॥ मुनि चंदजिणंद अमंद दिणंद परें, नित्य दीपतो सुखकंद रे ॥१॥
अर्थः-- श्री श्रेयांस प्रभु परमेश्वर निष्पन्न निरावरण स्वस्वरूपभोगीनो अति केतां अत्यंत उत्कृष्ट अद्भुत केतां आश्चर्यकारी सहजानंद केतां अकृत्रिम सहज स्वभावनो आनंद छे. श्रीश्रेयांसप्रभुजी ते जीवद्रव्य छे, साधनरत्नत्रयी परिणमीने सिद्ध भया छे, ते सिद्धपणे असंख्यात प्रदेशी छे, अनंतगुणी छे, अनंतपर्यायी छे, ते प्रभुनो एक एक गुण ते ऋण ऋण परिणतिरूप छे, सर्वद्रव्यनुं अर्थ क्रियाकारीपणं ते गुणपरिगतिथी छे, तेमध्यें असाधारणपणं विशेषगुणनी मुख्यतायें छे, अने साधारण गुणनी परिणति पण कर्त्ताद्रव्य कर्त्ताने हाथ छे, कर्त्ता करे तो प्रवृत्ते, कर्त्ता न करे, तो न प्रवृत्ते पांच अकर्त्ता द्रव्यनी गुणपरिणति सदा परिणमे छे, ए रीत छे, अने जीव द्रव्यनी गुणपरिणति, सिद्ध अवस्थायें सदा प्रवर्त्ते छे, पण कारक चक्रना वर्त्तनयी प्रवृत्ते छे, तेमाटे आत्मद्रव्यना ज्ञाना
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