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एकादश श्री श्रेयांसजिन स्तवनं
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दिक जे गुण छे, ते त्रिविधे परिणमे छे.
ए रीतें त्रिविधता तेहीज गुणमां छे, तिहां उपादानपणे
फल साध्य ते कार्य
करण जाणवुं,
ते करण, कार्य, अने क्रिया, ए ऋण परिणामनो कर्त्ता ते प्रकृष्ट कारण ते करण अने तथा ते करवारूप प्रवृत्ति ते क्रिया, कर्त्तानो व्यापार ते सिअवस्थायें अभेदरूप छे, जेम ज्ञानगुण ते अने ते ज्ञानगुणथी जे ज्ञेय पदार्थोनुं ज्ञान थाय ते एनं साध्य फल छे माटे ए कार्य जाणवुं तथा ते कार्य जाणवाने जे ज्ञाननी स्फुरणा एटले प्रवृत्ति ते क्रिया जाणवी, ए त्रणे अभेद छे, ए त्रिविधपरिणामें परिणम्या, एवा अनंतगुणना वृंद छे, ए श्रीश्रेयांस प्रभुना सर्वगुण व्यक्तपणे स्वकार्यताने करे छे ॥ उक्तं च विशेषावश्यके ॥ जं कज्ज कारणाई, पज्जाया वत्पुणो जओ तेण || अन्त्रेणन्त्रेण मया, तो कारण कज्ज भयज्ज ॥ १ ॥ इति वचनात् ॥
ते गुणनी आत्मा छे,
ते करणनुं
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एम कारण कार्य क्रियानी अभेदता पण छे, तथा भेदता पण छे, कालें अभेदता छे, सत्व, प्रमेयत्वें अभेदता छे, अने संज्ञा संख्या लक्षणे भेदता छे, माटे एवी व्याख्या छे || मुनिचंद केतां मुनि जे त्रिकाल अविषयी तत्त्वरमणी तेमांहे चंद्रमा समान अथवा मुनिचंद जिणंद ते जिन सामान्यकेवलीमां चंद्रमा समान, वली अमंद केतां देदीप्यमान दिणंद केतां सूर्य तेनी परें दीपतुं छे, तेज जेनुं तथा सुखकंद केतां सुखनो समूह छे जेने एहवा श्री श्रेयांस प्रभु तेहना सर्व गुण व्यक्तपणे स्वकार्यने करे छे ॥ १ ॥
वे आत्माना अनंता गुण छे, तेमां हें मुख्य गुण ते
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