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द्रव्यप्रकाश
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॥दोहा॥ दर्वितस्तवनाना थकी, करतां पुन्यप्रकाश, आतमके गुन गावतां, केवलज्ञान विलास. ॥११॥
॥ अथ भावस्तवनं ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ लोकालोक भासक अनंत ज्ञानदृष्टि जाकी वीरज अनंतसुख उषेरै कर्मकंदजू, चरण अनंतवर लोकालोक भावधर पुन्य पापसौ व्यतीत सुध सुख वृंदजू ; वेद कौन भेद तीनौ जोग कौन खेद तहां चेतन प्रकाश भयो कर्मसौ अफंदजू; ऐसे जिनराज निज ज्ञानमे बिराजमान अमल अखंड नित ध्यावे देवचंदजू . ॥ १२ ॥
॥ आचार्यस्तवनं ॥
॥ सवैया बतीसा॥ पंचाचार पाले निज ब्रह्मको संभाले भाले-टाले परभाव सब शुद्धभाव भावे हे, परमधरम गहे समता समाव वहे रहे न सराग चित्त नित्त लिव लावे हे; दुविध दयाके धार कीनो नारि परिहार परिग्रह दूर डारि नीरलोमी दावे हे; पख्याधि दूर टारे रागद्वेष मोह वारे ऐसे आचारज जिको देवचंद ध्यावे हे ॥ १३ ॥
॥ अथ उपाध्याय वरणन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ नित्य सो अनित्यरूप एकानेक कोशरूप सदसद्भाव
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