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नवम श्री चंद्रप्रभजिन स्तवनं.
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विना कर्म केम संभवे ? ए पक्ष उपजे, ते माटे अनादि सहजातसंयोग छे. तिहां कोई पूछे जे उभय संघोग एकठो कहो, तो कारण कार्यनो संबंध केम रहे ? तेहने उत्तर जे, उपादान धर्मे एक समयमा एकठीज कार्यकारणता छे, जेम सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानने छ, तेनी पेरें इहां पण श्री विशेपावश्यकथी जाणवू,
यदुक्तं ॥ गाथा ॥ नव कम्मस्स य पुव्वं, कत्तुरभावे समुप्भवो जुत्तो ॥ निकारणओ सोविय, तह जुगवयुपत्ति भावे य ॥ १ ॥ इत्यादि गाथाथी जाणवो. कोइ पूछशे जे अनादिनो मलेलो तेनो वियोग केम थाय ? तेहने कहियें ॥ गाथा ॥ जह चेह कंचणोबल, संयोगो णाइ संतय गओवि ॥ वुच्छझई सोवाय, तह जोगो जीव कम्माणं ॥१॥ इति पूज्यवाक्यात्. एटले ए विभावपरिणाम यद्यपि अन दिनो छे, पण प्रकृतिक छे, स्वरूप नथी, माटे एनो वियोग ते कीधो थाय. तेवारें कोइ कहेशे जे ., विभावनुं कर्तापणुं केम छे ? तेने कहे छे. जे आ मा स्वरूपकर्ता तेहने स्वरूपआवर्णे परभावसंयोगें परकर्तीपणुं थयुं छे, ते विभावमोहनी धूमि उतरे, मिथ्यात्वनी भुल टले, तेवारें अमल केतां रागद्वेष रहित अखंड केतां केवारें खंडाय नहीं, अलिप्त केतां परसंगना परहित एहवो पोतानो सहजस्व गाव सांभरे, भासन गोचरमां आवे, यद्यपि करें लेगा छे, तो पण सभा आलेत छे, निरामय छे, कर्मसंनय छे पण कर्मथी न्यारो छे, निःसंग छे, एहवो आत्मा जेवारें जोलखाणनां आवे, पछी तेहज साधक आत्मा पोतानुं तव जे शुशनिश्चयनयथी वस्तुस्वभाव तेहमां रमे, अनादि पौद्गलिक अशुद्धवर्णादिरमण तजिने, पोताना
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