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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३८ दे० चो० बा० अनंत पर्याय उत्पाद, व्यय, ध्रुव, भेदाभेद, अस्ति नास्तिरूप स्वरूपने ठीधे वर्ते छे, एहवी रत्नत्रयी, हे परमेश्वर ! ताहारे विषे परिणमी छे, तेनी प्रतीत ते वासना तथा ओलखाण ते भासन ते तेहने थाय, जेहने तुज केतां तुमारा जेवा गुण प्रगट्या होय, एटले हे नाथ ! हे सर्वज्ञ ! हे त्रैलोक्यदीपक ! ताहरी रत्नत्रयी ते तुझ समान गुणी होय, तेहनाज भासनमां आवे ॥ ३ ॥ मोहादिकनी घूमि, अनादिनी उतरे हो लाल ॥ अ० ॥ अमल अखंड अलिप्त, स्वभावज सांभरे हो लाल ॥ स्व० तत्त्वरमणशुचि ध्यान, भणी जे आदरे हो लाल ॥ भ० ॥ ते समतारस धाम स्वामिमुद्रा वरे हो लाल ॥ स्वा०॥४॥ अर्थ: - हे प्रभु! ताहरी मुद्रा ते परम समतानुं धाम छे, एवी बीजी कोइनी न होय, केम के एहवी सकल परभाव रहित परिणति, तो जेणें एम कहां होय, तेनेज निपजे, ते कहे छे, मोह जे मुंजता परिणाम, तेहनी धूमि जे स्वरूप अग्राहकता, परभावग्राहकता, परभावरम गनारू विभावता ते अनादि कालनी आत्माने विषे छे, इहां प्रश्न. जे ए विभावता अनादिनी छे, ते आत्मानो स्वपरिणाम छे किंवा परपरिणाम छे ? जो स्वपरिणाम छे, तो विभाव शा वास्ते कहो छो ? अने जो परपरिणाम के तो अनादि केम कहियें ? तेहने उत्तर. जे आदि केतां पहेलो जीव अने पछी कर्म कहियें तो पेहला सिद्ध पछी कर्म लागे, अथवा पेहलां कर्म अने पछी जीव, एम कहियें तो कर्त्ता २२ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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